- बिहार की राजनीति में नीतीश और लालू की छाप, अब नई पीढ़ी तय करेगी भविष्य
- सत्ता के रंग, जनता के फैसले, बिहार का 113 सालों का लोकतांत्रिक सफर
पटना। बिहार की राजनीति सिर्फ पेशा नहीं, परंपरा है। जहां सत्ता का रास्ता नारे से नहीं, नसीब से निकलता है। 1912 में बंगाल से अलग होकर बना बिहार आज 113 साल का हो चुका है। इस सदी लंबे सफर में बिहार ने वो सब देखा जो एक लोकतंत्र की सबसे जीवंत तस्वीर पेश करता है- संघर्ष, बगावत, जाति समीकरण, गठबंधन और करिश्माई नेतृत्व।
राज्य स्थापना से लेकर राजनीतिक सफर
बिहार का राजनीतिक इतिहास स्वतंत्र भारत से भी पुराना है। ब्रिटिश काल में जब 1912 में बिहार एक स्वतंत्र प्रांत बना, तब से यह धरती नेताओं की जननी रही है। स्वतंत्रता के बाद 1946 में पहले मुख्यमंत्री के रूप में श्रीकृष्ण सिंह (श्रीबाबू) ने सत्ता संभाली। उनके समय में बिहार औद्योगिक दृष्टि से भारत के विकसित राज्यों में गिना जाता था। बोकारो, बरौनी, और हजारीबाग में उद्योगों का विकास हुआ। 1952 से लेकर 1961 तक श्रीकृष्ण सिंह बिहार की राजनीति के 'विकास पुरुष' कहलाए। फिर सत्ता बदली और कांग्रेसी वर्चस्व का युग आया। बिनोदानंद झा, कृष्ण बल्लभ सहाय, माहामाया प्रसाद सिन्हा, दरोगा राय, कर्पूरी ठाकुर जैसे नेताओं ने इस राज्य की राजनीति को दिशा दी।
जातीय राजनीति और जनसंघर्ष का दौर
1970 और 80 के दशक में बिहार का चेहरा बदलने लगा। जयप्रकाश नारायण का ‘संपूर्ण क्रांति आंदोलन’ यहीं से फूटा, जिसने देश की राजनीति की धारा ही मोड़ दी। इसी आंदोलन ने लालू प्रसाद यादव, नीतीश कुमार और सुशील मोदी जैसे नेताओं को जन्म दिया। 1990 में लालू प्रसाद यादव जब सत्ता में आए तो उन्होंने कहा था कि अब भैसिया चराने वाला भी राज करेगा। लालू का कार्यकाल सामाजिक न्याय की राजनीति का प्रतीक बना। 'भूरा बाल साफ करो' जैसे नारे ने जातीय राजनीति को गहराई तक पहुंचाया। लेकिन- इसी दौर में भ्रष्टाचार और प्रशासनिक पतन ने बिहार की छवि को नुकसान भी पहुंचाया।
जंगलराज से सुशासन बाबू तक
राजनीतिक विश्लेषक व वरिष्ठ पत्रकार लव कुमार मिश्र मानते हैं कि 2005 में सत्ता के समीकरण बदले। नीतीश कुमार ने एनडीए के साथ मिलकर राज्य की बागडोर संभाली। सड़क, शिक्षा और महिला सशक्तिकरण के नाम पर उन्होंने सुशासन का नया अध्याय शुरू किया। साइकिल योजना, मुख्यमंत्री कन्या सुरक्षा योजना और हर घर नल-जल जैसी योजनाओं ने उन्हें ‘सुशासन बाबू’ बना दिया। लेकिन- बिहार की राजनीति कभी स्थिर नहीं रही। नीतीश ने बीच-बीच में पाला बदलकर ये साबित कर दिया कि बिहार में कोई स्थायी दोस्त या दुश्मन नहीं होता, बस समीकरण स्थायी होते हैं। 2015 में उन्होंने लालू के साथ हाथ मिलाया, फिर 2017 में भाजपा के साथ लौट आए।
2020 और 2025: नया बिहार या पुराना समीकरण?
राजनीतिक विश्लेषक चंद्रमा तिवारी कहते हैं कि 2020 के विधानसभा चुनाव में एनडीए ने 125 सीटों के साथ मामूली बहुमत पाया। लेकिन- जनता दल (यू) कमजोर हुई और भाजपा उभरी। वहीं 2025 का चुनाव इस समीकरण को और उलझा गया है। अब सवाल है- क्या बिहार नीतीश के बाद का युग देखने को तैयार है? नई पीढ़ी के नेता जैसे तेजस्वी यादव, उपेंद्र कुशवाहा, चिराग पासवान और सम्राट चौधरी बिहार की राजनीति में नई बिसात बिछा रहे हैं।
कौन भाया बिहार को... आंकड़ों में सत्ता का खेल
अब तक 24 मुख्यमंत्री बिहार ने देखे हैं। इनमें से नीतीश कुमार सबसे लंबे समय तक सत्ता में रहे। जबकि लालू प्रसाद यादव ने सबसे प्रभावशाली सामाजिक-राजनीतिक छाप छोड़ी। 1952 से 1980 तक कांग्रेस का दबदबा रहा। 1990 से 2005 तक लालू-राबड़ी युग रहा और 2005 से अब तक नीतीश युग जारी है। बीच-बीच में सत्ता के रंग बदलते रहे, लेकिन जनता ने हर बार नए प्रयोग किए।
2025 के चुनाव में भी 1946 की चुनौती
बिहार का इतिहास बताता है कि नेता आते-जाते रहे, लेकिन जनता ने हमेशा अपने लोकतंत्र की ताकत को अमर बना रखा है। 2025 के चुनाव में भी वही सवाल है जो 1946 में था- कौन भाएगा बिहार को? और शायद जवाब वही होगा कि जिसे जनता चाहेगी, वही बिहार का भाग्य लिखेगा।
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