गुजरात के सूरत में हीरा उद्योग के व्यापारी अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के लगाए गए टैरिफ़ के कारण चिंतित हैं.
सूरत दुनिया में हीरों की कटिंग और पॉलिशिंग के लिए जाना जाता है, लेकिन अब इस उद्योग पर निर्भर रहने वाले लोग मुश्किल में हैं.
अमेरिका की ओर से लगाए गए 50 फ़ीसदी टैरिफ़ ने इस क्षेत्र के व्यापारियों के साथ-साथ मज़दूरों को भी चिंता में डाल दिया है. हीरा उद्योग से जुड़े 25 लाख से ज़्यादा कामगार इससे प्रभावित हो सकते हैं.
अमेरिका के भारत पर 50 फ़ीसदी टैरिफ़ लगाने का असर सबसे ज़्यादा इस क्षेत्र पर पड़ रहा है क्योंकि सूरत का हीरा उद्योग अमेरिका को किए जाने वाले निर्यात पर निर्भर है.
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कुछ लोगों का मानना है कि अगर टैरिफ़ कम नहीं किया गया, तो कई व्यापारी हीरा उद्योग से बाहर हो जाएंगे, कई लोगों की नौकरियां चली जाएंगी और भयंकर मंदी आ जाएगी.
हालांकि, दूसरी ओर हीरा उद्योग से जुड़े संगठन जैसे सूरत डायमंड एसोसिएशन और साउथ गुजरात चैंबर ऑफ़ कॉमर्स का मानना है कि अमेरिकी टैरिफ़ से कुछ मंदी आएगी लेकिन समय के साथ स्थिति स्थिर हो जाएगी.
उनका कहना है कि भारत को हीरा उद्योग की जितनी ज़रूरत है, अमेरिका में भी हीरों की उतनी ही मांग है. इसलिए वहां के लोग और व्यापारी भी इस समस्या का समाधान चाहते हैं.
सूरत की फ़ैक्ट्रियों पर ट्रंप के टैरिफ़ का असरसूरत के बाज़ारों में सुबह और शाम के समय दुपहिया गाड़ियों से ट्रैफ़िक जाम होना आम बात है, क्योंकि उस समय हीरा कारीगर या तो काम पर जा रहे होते हैं या काम से लौट रहे होते हैं.
शहर की कई छोटी फैक्ट्रियों में 20 से 200 श्रमिक काम करते हैं. कई फैक्ट्रियों में कामगारों की संख्या 500 तक होती है. सूरत में ऐसी हज़ारों फैक्ट्रियां हैं.
सूरत के कतारगाम स्थित हीरा पॉलिश वाली एक यूनिट में मेज़ों पर धूल जमी है, हीरे पॉलिश करने वाली चक्कियों का कई दिनों से इस्तेमाल नहीं हुआ है.
मेज़ों की खाली लाइनों में केवल छह लोग काम कर रहे हैं.
उनमें से एक कारीगर ने कहा, "कभी यहां कारीगरों की भारी भीड़ रहती थी. हाल ही में कई लोगों को नौकरी से निकाल दिया गया है. हमें तो यह भी नहीं पता कि अब हमारा क्या होगा."
सूरत में कई छोटी-बड़ी फैक्ट्रियों का यही हाल है.
20 साल पहले शैलेश मंगुकिया ने सिर्फ़ एक पॉलिशिंग व्हील (चक्की) से हीरा पॉलिश करने की एक यूनिट शुरू की थी.
धीरे-धीरे कारोबार बढ़ता गया और फ़ैक्ट्री में कामगारों की संख्या तीन से बढ़कर 300 हो गई. हालांकि, अब उनकी फैक्ट्र्री में सिर्फ़ 70 लोग ही बचे हैं.
बीबीसी गुजराती से बात करते हुए वे कहते हैं, "सारे ऑर्डर कैंसल कर दिए गए हैं. मज़दूरों से कहना पड़ रहा है कि काम नहीं है. ये बहुत दुखद है, क्योंकि समझ नहीं आ रहा कि किसे निकालें और किसे रखें? सभी लोग मेरे परिवार के सदस्य जैसे हैं. लेकिन ऑर्डर नहीं होने की वजह से काम नहीं है और काम नहीं होने की वजह से मेरे पास उन्हें सैलरी देने के पैसे नहीं हैं."
पिछले साल अगस्त में, उनकी फ़ैक्ट्री में हर महीने औसतन दो हज़ार हीरों की प्रोसेसिंग हो रही थी, लेकिन इस साल अगस्त में यह संख्या घटकर मात्र 300 रह गई है. मंगुकिया को डर है कि अगर यही हाल रहा तो फ़ैक्ट्री को जल्द ही बंद करना पड़ेगा.
टैरिफ़ के कारण आई मंदी का सीधा असर श्रमिकों पर पड़ना शुरू हो गया है.
बीबीसी गुजराती से बात करते हुए श्रमिक सुरेश राठौड़ ने कहा, "आमतौर पर हमें जन्माष्टमी के दौरान सिर्फ़ दो दिन की छुट्टी मिलती है. इस बार हमें 10 दिन की बिना वेतन की छुट्टी दी गई. हम ऐसे कैसे रह सकते हैं? लेकिन मालिक क्या करें, कोई ऑर्डर ही नहीं है."
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सुरेश राठौड़ जैसे कई कारीगर हैं, जो इस तरह से प्रभावित हो रहे हैं.
सूरत डायमंड पॉलिशर्स यूनियन के उपाध्यक्ष भावेश टांक के ऑफ़िस में इस समय बहुत से जौहरी शिकायत लेकर आ रहे हैं कि उनका वेतन कम कर दिया गया है या उन्हें नौकरी से निकाल दिया जाएगा.
बीबीसी गुजराती से बात करते हुए उन्होंने कहा, "हमें शिकायतें मिली हैं कि कई कर्मचारियों के वेतन में कटौती की गई है. कई लोगों को बिना वेतन के छुट्टी दी गई है, जैसे जन्माष्टमी के दौरान. इस साल कर्मचारियों को 3-5 दिनों तक घर पर ही रहना पड़ रहा है."
उनके अनुसार, कई फ़ैक्ट्रियों ने एक अगस्त से पहले ही माल जल्दी भेज दिया था, जिसकी वजह से अब नये ऑर्डर नहीं मिल रहे हैं. हज़ारों मज़दूरों की आमदनी कम हो रही है.
हीरा निर्यातकों की समस्या
निर्यातक भी अनिश्चितताओं से घिरे हुए हैं. उद्योग जगत के नेताओं ने एक स्पेशल डायमंड टास्क फोर्स बनाई है, जो इस स्थिति का समाधान निकालने की कोशिश करेगी.
दक्षिण गुजरात चैंबर ऑफ़ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री के अध्यक्ष निखिल मद्रासी ने इस बारे में बीबीसी गुजराती से बात की.
वे कहते हैं, "अमेरिकी बाज़ार पर भारी निर्भरता के कारण लंबे समय में बड़ा झटका लगेगा. पुराने ऑर्डर पूरे हो गए हैं, लेकिन नये ऑर्डर का भविष्य अस्पष्ट है. सरकार को तुरंत मदद करनी होगी."
उन्होंने कहा कि कई व्यापारी मध्य पूर्व और यूरोप जैसे बाज़ारों में अवसर तलाश रहे हैं, और कुछ तो 'बाईपास मार्गों' के ज़रिए अमेरिका तक माल पहुंचाने का प्रयास कर रहे हैं.
हालांकि, उनके अनुसार अब अलग-अलग यूरोपीय देशों में नए बाज़ारों की तलाश करने की ज़रूरत है.
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इस उद्योग जगत के दूसरे लोगों का कहना है कि आने वाले दिनों में स्थिति और खराब हो सकती है.
जेम एंड ज्वैलरी एक्सपोर्ट प्रमोशन काउंसिल (जीजेईपीसी) के गुजरात अध्यक्ष जयंतीभाई सावलिया का मानना है कि अब समय आ गया है कि अमेरिका पर निर्भरता कम की जाए और अन्य बाज़ारों की ओर देखा जाए.
उन्होंने कहा, "अगर ऑर्डर नहीं मिले तो निश्चित रूप से श्रमिकों के वेतन और रोज़गार पर असर पड़ेगा. असली असर आने वाले महीनों में दिखेगा. अभी दुबई, ऑस्ट्रेलिया और यूरोप जैसे बाज़ारों पर ज़्यादा ध्यान देने की ज़रूरत है."
वे आगे कहते हैं, "वर्तमान में अमेरिका को होने वाला कुल निर्यात लगभग 12 अरब डॉलर का है, अगर हम इसका आधा व्यापार भी अन्य देशों से पा सकें, तो सूरत का हीरा उद्योग बच सकता है."
'अमेरिका को भी भारतीय हीरों की ज़रूरत'विशेषज्ञों का मानना है कि जिस तरह भारत में शादी-ब्याह या दूसरे शुभ अवसरों पर सोने का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल होता है, उसी तरह अमेरिका में भी शुभ अवसर हीरे के बिना पूरे नहीं हो सकते.
बीबीसी गुजराती से बात करते हुए सूरत डायमंड एसोसिएशन के अध्यक्ष जगदीश खुंट कहते हैं, "हम वित्त मंत्रालय से बात कर रहे हैं. अमेरिका भारतीय हीरों के बिना नहीं रह सकता. दुनिया के 15 में से 14 हीरे गुजरात में तराशे जाते हैं. चूंकि अमेरिका भारतीय हीरों के बिना नहीं रह सकता, इसलिए वहां के व्यापारी भी इस समस्या का समाधान खोज रहे हैं."
जेम एंड ज्वैलरी एक्सपोर्ट प्रमोशन काउंसिल (जीजेईपीसी) के अनुसार, पिछले साल अमेरिका ने भारत से 11.58 अरब डॉलर मूल्य के हीरे और आभूषण आयात किए. इसमें से पॉलिश किए हुए हीरे 5.6 अरब डॉलर के थे. बाकी सोना, चांदी, प्लैटिनम और रंगीन पत्थर थे.
पिछले साल तक पॉलिश किए गए हीरों पर कोई कर नहीं था, लेकिन अब बढ़े हुए कर से पूरा व्यापार ही हिल गया है.
धुंधली सी आगे की राहसूरत की फ़ैक्ट्रियों में इस समय चिंता और असमंजस का माहौल है. दिहाड़ी पर गुज़ारा करने वाले मज़दूरों के लिए वेतन में कटौती या बिना वेतन के छुट्टी पर रहना मुश्किल हो रहा है.
व्यापारी नए बाज़ार तलाशने की बात कर रहे हैं, जबकि मज़दूरों को अपनी नौकरी जाने का डर सता रहा है.
मंगुकिया नम आंखों से कहते हैं, "यहां की चमक धीरे-धीरे फीकी पड़ रही है...और मुझे नहीं पता कि यह वापस आएगी भी या नहीं."
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित
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