सीकर, 20 सितंबर . देशभर में नवरात्रि मनाने की तैयारियां चल रही हैं. इस पवित्र अवसर पर राजस्थान के सीकर में मां दुर्गा की प्रतिमाओं को खरीदने की होड़ लगी है. शहर में मिट्टी की मूर्तियां बनाने के लिए बंगाल से हर साल विशेष मूर्तिकार बुलाए जाते हैं. ये मूर्तिकार चार-पांच महीने पहले आ जाते हैं. मूर्तिकार राजूपाल ने बताया कि मूर्तियां इको फ्रेंडली हैं.
मूर्तिकार ने बताया कि इस बात का ध्यान रखा गया है कि पर्यावरण प्रदूषित न हो. खास बात है कि प्रतिमाओं के निर्माण के लिए कारीगर अपने साथ बंगाल की मिट्टी भी लेकर आते हैं.
मूर्तिकारों के मुताबिक प्रतिमा में फिनिशिंग सिर्फ बंगाल की मिट्टी से ही आती है. बंगाल की मिट्टी से देवी दुर्गा की मिट्टी की प्रतिमाएं बनाने में कई महीने का समय लगता है. इसके लिए सबसे पहले लकड़ी से ढांचा खड़ा किया जाता है. फिर ढांचें पर घास-फूंस, सुतली और लोकल मिट्टी से लेप किया जाता है. बाद में बंगाल की विशेष मिट्टी से इसे फाइनल फिनिशिंग दी जाती है. बंगाल की मिट्टी चिकनी और चिपचिपी होती है. प्रतिमा पर इसका लेप चढ़ाने के सूखने के बाद भी इसमें दरारें नहीं आतीं. मिट्टी सूखने के बाद इस पर कपड़ा चढ़ाया जाता है और वॉटर कलर से फिर इसे रंगते हैं. आखिरी के 8 दिनों में दिन-रात लगकर कारीगर मूर्तियों को गहनों से सजाते हैं.
शहर में कई जगह मूर्तियां बन रही हैं. इन मूर्तियों की कीमत 3 हजार से लेकर 31 हजार तक है. सीकर में नागौर, झुंझुनूं, चुरु, फतेहपुर व आसपास के जिलों से भी लाखों की मूर्तियां बनाने के ऑर्डर आते हैं. ऐसे में सीकर में करीब एक करोड़ से अधिक मूर्तियों का कारोबार हर साल होता है. अशोक विहार में मूर्ति बना रहे मूर्तिकार राजूपाल का कहना है कि वह नवरात्रि तक 15 लाख की मूर्तियां बनाकर बेच देंगे.
मूर्तिकार राजूपाल ने से खास में बताया कि इस बार 100 से अधिक मूर्तियां बनाने का टारगेट है. इसके लिए 11 मूर्तिकार बंगाल से आए हैं. मूर्तिकार राजूपाल ने बताया कि हमारे से कोई माता रानी की मूर्ति बनवाता है तो कुछ देवी के दरबार बनवाते हैं. ऐसी ही कई अलग-अलग रूपों की मूर्तियों के ऑर्डर एक साल पहले ही आने शुरू हो जाते हैं. सीकर में बंगाली मूर्तिकार पिछले 25 सालों से दुर्गा प्रतिमाएं बनाने बंगाल से आते हैं. खास बात ये है कि ये मूर्तिकार सिर्फ इको फ्रेंडली मिट्टी और घास-फूस की मूर्तियां बनाते हैं जो पानी में विसर्जन के बाद पानी में ही घुल जाती हैं और पर्यावरण को नुकसान नहीं पहुंचातीं.
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एएसएच/डीएससी
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