12 जून 2025 को गुजरात के अहमदाबाद में हुए भीषण विमान हादसे को अब छह महीने बीत चुके हैं। उस हादसे में 241 लोगों की जान चली गई थी, लेकिन किस्मत ने एक व्यक्ति को बचा लिया — भारतीय मूल के ब्रिटिश नागरिक रमेश विश्वास कुमार। आज भी रमेश उस दिन की यादों से उबर नहीं पाए हैं। उनका कहना है कि “जिंदा बच जाना मेरे लिए एक चमत्कार भी है और सज़ा भी।”
मानसिक रूप से टूट चुके हैं रमेश
हादसे के बाद रमेश इंग्लैंड के लीसेस्टर लौट आए, लेकिन उनका जीवन अब पहले जैसा नहीं रहा। डॉक्टरों के मुताबिक, वे पोस्ट-ट्रॉमेटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर (PTSD) से जूझ रहे हैं। हादसे की भयावहता ने उनके मानसिक संतुलन को गहराई से झकझोर दिया है। रमेश अब भी चलने-फिरने में कठिनाई महसूस करते हैं और किसी भी तेज़ आवाज़ या अचानक स्थिति से डर जाते हैं।   
“हर दिन जीना किसी यातना से कम नहीं”
बीबीसी से बातचीत में रमेश ने कहा, “मैं उस हादसे में अकेला जिंदा बचा था। कभी-कभी लगता है कि यह कोई सपना था, और मैं आज भी उस दिन में फंसा हूं। मैंने उस हादसे में अपने भाई अजय को खो दिया — वह सिर्फ मेरा भाई नहीं, मेरा सबसे बड़ा सहारा था।” रमेश बताते हैं कि अब वे ज़्यादातर समय अपने कमरे में अकेले रहते हैं। “मैं अपनी पत्नी और बेटे से भी बात नहीं करता। किसी से मिलने का मन नहीं करता। मैं बस सोचता रहता हूं कि मैं क्यों बच गया... हर रात मेरे लिए एक और हादसे जैसी होती है।”
हादसे के बाद की मदद और मुआवजा
इस दर्दनाक हादसे के बाद एअर इंडिया ने मृतकों के परिवारों और घायलों को आर्थिक सहायता देने की घोषणा की थी। रमेश को भी कंपनी की ओर से 21,500 ब्रिटिश पाउंड (लगभग 22 लाख रुपये) का अंतरिम मुआवजा दिया गया। हालांकि, उनके परिवार का कहना है कि यह रकम इतनी बड़ी त्रासदी के सामने बहुत कम है। एअर इंडिया का कहना है कि कंपनी हर प्रभावित परिवार को उचित सहयोग देने के लिए प्रतिबद्ध है।
कैसे हुआ था हादसा
12 जून की उस सुबह एअर इंडिया की फ्लाइट AI 171 अहमदाबाद से लंदन के लिए रवाना हुई थी। विमान में 230 यात्री और 12 क्रू मेंबर, कुल 242 लोग सवार थे। उड़ान भरने के कुछ ही मिनट बाद तकनीकी खराबी के चलते विमान क्रैश हो गया। अधिकांश यात्रियों की मौके पर ही मौत हो गई। रमेश सीट नंबर 11A पर बैठे थे और हादसे के दौरान विमान के फ्यूज़लेज में बने एक छेद से किसी तरह बाहर निकलने में कामयाब हुए।
“अब जीवन पहले जैसा नहीं रहा”
रमेश कहते हैं, “जब मैं आंखें बंद करता हूं, तो सिर्फ चिल्लाहटें और आग की लपटें दिखती हैं। मैं खुद को जिंदा देखकर भी खुश नहीं हो पाता। ऐसा लगता है जैसे उस दिन मैं वहीं मर गया था।” वह बताते हैं कि उनके लिए अब हर दिन जीना एक संघर्ष बन चुका है — एक ऐसा संघर्ष जो शरीर से नहीं, आत्मा से लड़ना पड़ता है।
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