नई दिल्ली: हम कितना भी बड़ा तीर मार लें, आकाशतीर और ब्रह्मोस से दुश्मन के छक्के छुड़ा दें, मगर बात हर तरफ से आकर जाति-धर्म पर ठहर जाती है। यह हमारे समाज की कड़वी हकीकत है, जिससे कोई इनकार नहीं कर सकता। धर्म-जाति की सियासत: जाति-धर्म की इस मानसिकता को हवा देने में तमाम दलों के नेता आगे हैं। पहले कर्नल सोफिया कुरैशी के धर्म को उछालकर अपना उल्लू सीधा करने की कोशिश की गई। उसके बाद एक और नेताजी ने हमारी सेना के नायकों की जातियां उजागर कर राष्ट्रहित में किए गए उनके योगदान को कमतर करने की कोशिश की। जाति जनगणना: जाति पॉलिटिक्स के चलते ही कई राज्यों में जाति जनगणना या जातिगत सर्वे कराए गए। जिसकी जितनी संख्या भारी, उतनी उसकी भागीदारी का नारा देकर इसे बड़ा राजनीतिक मुद्दा बना दिया गया। केंद्र सरकार ने भी जातिगत जनगणना कराने का प्रावधान किया है। केंद्र में सत्तासीन NDA के 'इस कदम को विपक्षी दलों से उनका एक प्रमुख राजनीतिक मुद्दा छीनने की कोशिश के तौर पर देखा जा रहा है। अगले कुछ महीनों में होने वाले बिहार चुनाव से पहले ऐसा करना और अधिक प्रासंगिक हो गया है। अवसर का अभाव: इसमें कोई बुराई नहीं कि भारत जैसे बहुलतावादी समाज में विकास की दौड़ में पीछे छूट रहे कुछ वर्गों को जाति जनगणना से मिले आकंड़ों के आधार पर बेहतर योजनाएं बनाकर बराबरी का मौका दिया जाए। यह हकीकत है कि दलित, आदिवासी और OBC समाज में अब भी कई बेहद प्रतिभाशाली छात्र इसलिए आगे नहीं बढ़ पाते, क्योंकि उनके माता-पिता के लिए मूलभूत सुविधाओं की जद्दोजहद में अच्छी और उच्च शिक्षा के लिए पैसा खर्च करना नामुमकिन होता है । मानसिकता बदले: सरकारें पॉलिसी मेकिंग के लिए जातिगत जनगणना कराकर अपने स्तर पर प्रयास हैं, लेकिन उससे भी बड़ी जरूरत हम सबके जेहन में गहरे पैठ बना चुकी जाति की मानसिकता को तोड़ने की है। किसी की प्रतिभा, साहस और समर्पण के आगे उसकी नेम प्लेट पर नजर दौड़ाने की सोच से निकलना जरूरी है। जिन समाजों में जातिविहीन सिस्टम है, उन्होंने हर क्षेत्र में तरक्की की है । जाति की मानसिकता टूटे, इसके लिए जरूरी है कि अंतरजातीय विवाहों पर जोर दिया जाए। ऐसे विवाह हो रहे हैं, लेकिन इनकी संख्या बहुत कम है। अंतरजातीय विवाह को बढ़ावा: अंतरजातीय विवाह सवर्ण और दलित, सवर्ण और आदिवासी और सवर्ण और OBC जातियों के बीच बहुतायत में होने की जरूरत है। तभी एक-दो पीढ़ियों बाद जाति के इस दुष्चक्र से छुटकारा मिलने की उम्मीद बन सकती है। इसके लिए एक तरफ सरकारों को बढ़ावा देना होगा तो दूसरी तरफ युवाओं को तमाम चुनौतियों के बीच जोखिम उठाना होगा। इस जोखिम के खतरे तब बहुत कम हो जाते हैं, जब हम आर्थिक तौर पर आत्मनिर्भर हो जाते हैं। आर्थिक आत्मनिर्भरता: जो युवा आर्थिक तौर पर जितना आत्मनिर्भर होता है, खुद के बार में फैसला भी उतने दम से कर पाता है। ऐसे में पैरंट्स भी बहुत आसानी से उनके फैसलों को मानते हैं । यहां तक कि कोई लड़की अगर आर्थिक तौर पर आत्मनिर्भर है तो वह अपना जीवनसाथी चुनने का फैसला स्वतंत्र तौर पर कहीं अधिक आसानी से कर पाती है। समाज और देश की तरक्की के लिए जाति के बंधनों को तोड़ना जरूरी भी है और वक्त की मांग भी।
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