ईश्वर कोई दृश्य वस्तु नहीं, जिसे आंखों से देखा जा सके, वह एक चेतना है, एक शक्ति, जो प्रत्येक क्रिया, गति और सृजन के पीछे कार्यरत है। जो इस शक्ति को भीतर से अनुभव करता है, उसके लिए ईश्वर का अस्तित्व असंदिग्ध होता है।
एक बार एक जिज्ञासु ने प्रसिद्ध दार्शनिक सुकरात से पूछा, ‘भगवान हैं, कि नहीं?’ उन्होंने सिर हिलाकर उत्तर दिया, ‘नहीं,’ दूसरे दिन वही प्रश्न एक दूसरे जिज्ञासु ने किया तो उत्तर था, ‘हां भगवान हैं’। परस्पर विरोधी उत्तर सुनकर उनके शिष्यों ने इस भिन्नता का कारण पूछा तो सुकरात ने कहा, ‘चरम चक्षुओं से जो उसे आकृतिवान देखना चाहते हैं, उनको नहीं के निष्कर्ष पर पहुंचना ही पड़ेगा, पर जो वस्तुओं के पीछे कार्य करने वाली शक्ति का अनुभव कर सकते हैं, उन्हें ईश्वर की सत्ता और महत्व का अनुभव करने में तनिक भी कठिनाई नहीं होगी।’
सुकरात का उत्तर दर्शाता है कि ईश्वर को जानने के लिए तर्क नहीं, अनुभूति की आवश्यकता होती है। यह एक आंतरिक यात्रा है, जहां विचारों के शोर से परे शांति में ईश्वर की उपस्थिति का अनुभव होता है। सुकरात के द्वारा दिया गया यह उत्तर सिर्फ दर्शन का नहीं, बल्कि अनुभव का संकेत था, जिसे समझकर ईश्वरीय सत्ता के प्रति आभार प्रकट कर मनुष्य अपना कल्याण कर सकता है। उम्मीद है अगर यह उत्तर और सुकरात की बात आपको समझ आई है, तो आज के बाद फिर किसी से नहीं पूछेंगे कि ईश्वर है या नहीं।
गुरु, भगवान, संत कब करते हैं उद्धार
संत और भगवान भी तभी उद्धार करते हैं, जब मनुष्य स्वयं उन पर श्रद्धा-विश्वास रखता है, उनको स्वीकार करता है, उनके सम्मुख होता है, उनकी आज्ञा का पालन करता है। अगर मनुष्य उनको स्वीकार न करे तो वे कैसे उद्धार करेंगे, नहीं कर सकते हैं। मानव अगर स्वयं शिष्य न बने तो गुरु क्या करेगा। ऐसे ही स्वयं की लगन न हो, तो संत-महात्माओं का उपदेश किस काम का। अपने उद्धार और पतन का मनुष्य स्वयं कारण है, दूसरा कोई नहीं। भगवान ने गीता में स्पष्ट कहा है कि अपने द्वारा अपना उद्धार करो, अपना पतन न करो, क्योंकि आप ही अपने मित्र हैं और आप ही अपने शत्रु हैं। मनुष्य को अपने जीवन को सुधार-संवारने के लिए संस्कारों का, धर्म-संस्कृति का सहारा लेना चाहिए। भारत में अनेक रीति-रिवाज, धार्मिक आयोजनों, संस्कारों का विशेष महत्व दिखाई पड़ता है। बुद्धि के स्तर पर उनका महत्व शायद कुछ लोगों को उतना दृष्टिगोचर नहीं होगा, पर वहीं संस्कार कालांतर में अपना शुभ प्रभाव दिखाते हैं, तो उनका प्रभाव हृदय को स्वीकार करना पड़ता है।
एक बार एक जिज्ञासु ने प्रसिद्ध दार्शनिक सुकरात से पूछा, ‘भगवान हैं, कि नहीं?’ उन्होंने सिर हिलाकर उत्तर दिया, ‘नहीं,’ दूसरे दिन वही प्रश्न एक दूसरे जिज्ञासु ने किया तो उत्तर था, ‘हां भगवान हैं’। परस्पर विरोधी उत्तर सुनकर उनके शिष्यों ने इस भिन्नता का कारण पूछा तो सुकरात ने कहा, ‘चरम चक्षुओं से जो उसे आकृतिवान देखना चाहते हैं, उनको नहीं के निष्कर्ष पर पहुंचना ही पड़ेगा, पर जो वस्तुओं के पीछे कार्य करने वाली शक्ति का अनुभव कर सकते हैं, उन्हें ईश्वर की सत्ता और महत्व का अनुभव करने में तनिक भी कठिनाई नहीं होगी।’
सुकरात का उत्तर दर्शाता है कि ईश्वर को जानने के लिए तर्क नहीं, अनुभूति की आवश्यकता होती है। यह एक आंतरिक यात्रा है, जहां विचारों के शोर से परे शांति में ईश्वर की उपस्थिति का अनुभव होता है। सुकरात के द्वारा दिया गया यह उत्तर सिर्फ दर्शन का नहीं, बल्कि अनुभव का संकेत था, जिसे समझकर ईश्वरीय सत्ता के प्रति आभार प्रकट कर मनुष्य अपना कल्याण कर सकता है। उम्मीद है अगर यह उत्तर और सुकरात की बात आपको समझ आई है, तो आज के बाद फिर किसी से नहीं पूछेंगे कि ईश्वर है या नहीं।
गुरु, भगवान, संत कब करते हैं उद्धार
संत और भगवान भी तभी उद्धार करते हैं, जब मनुष्य स्वयं उन पर श्रद्धा-विश्वास रखता है, उनको स्वीकार करता है, उनके सम्मुख होता है, उनकी आज्ञा का पालन करता है। अगर मनुष्य उनको स्वीकार न करे तो वे कैसे उद्धार करेंगे, नहीं कर सकते हैं। मानव अगर स्वयं शिष्य न बने तो गुरु क्या करेगा। ऐसे ही स्वयं की लगन न हो, तो संत-महात्माओं का उपदेश किस काम का। अपने उद्धार और पतन का मनुष्य स्वयं कारण है, दूसरा कोई नहीं। भगवान ने गीता में स्पष्ट कहा है कि अपने द्वारा अपना उद्धार करो, अपना पतन न करो, क्योंकि आप ही अपने मित्र हैं और आप ही अपने शत्रु हैं। मनुष्य को अपने जीवन को सुधार-संवारने के लिए संस्कारों का, धर्म-संस्कृति का सहारा लेना चाहिए। भारत में अनेक रीति-रिवाज, धार्मिक आयोजनों, संस्कारों का विशेष महत्व दिखाई पड़ता है। बुद्धि के स्तर पर उनका महत्व शायद कुछ लोगों को उतना दृष्टिगोचर नहीं होगा, पर वहीं संस्कार कालांतर में अपना शुभ प्रभाव दिखाते हैं, तो उनका प्रभाव हृदय को स्वीकार करना पड़ता है।
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