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भारत उन्हीं का है जिन्होंने उसे हर युग में संभाला : सह सरकार्यवाह अरुण कुमार

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इंदौर, 05 अक्टूबर (Udaipur Kiran News) . महानगर के ऐतिहासिक डेली कॉलेज में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सह सरकार्यवाह अरुण कुमार ने जब मंच संभाला, तो उनका पहला प्रश्न ही समूचे विमर्श का सार बन गया, “राष्ट्र किसका है, यह प्रश्न ही कैसे पैदा हुआ?” यह प्रश्न मात्र विचारोत्तेजक नहीं, उस मानसिक विचलन का प्रतीक भी है जो स्‍वाधीनता के बाद धीरे-धीरे हमारे राष्ट्रीय विमर्श में प्रवेश कर गया, जब भारत की अस्मिता को टुकड़ों में बाँटने की कोशिशें तेज हुईं और यह सवाल खड़ा किया गया कि ‘राष्ट्र किसका है’.

सह सरकार्यवाह अरुण कुमार ने यह बातें Saturday को इंदौर में आयोजित संघ के आदरांजलि कार्यक्रम में अपने उद्बोधन में कहीं.उनका उत्तर स्पष्ट था; यह राष्ट्र किसी ‘नए निर्माण’ का परिणाम नहीं, बल्कि हजारों वर्षों की सतत सभ्यतागत यात्रा का परिणाम है. यह न किसी एक शासन का दिया हुआ उपहार है, न किसी सत्ता के निर्णय का परिणाम. भारत वह भूमि है, जिसे इसके पूर्वजों ने अपने त्याग, तप, और बलिदान से गढ़ा है. यही भाव इस विचार का केंद्र है कि भारत उन लोगों का है, जिनके पूर्वजों ने हर कष्ट सहकर इसे बनाए रखा है.

राष्ट्रभक्ति : केवल जय-जयकार नहीं, जीवन का समर्पण

अरुण कुमार ने कहा कि “राष्ट्रभक्ति केवल जय-जयकार में नहीं, बल्कि हर पल राष्ट्र और समाज के लिए जीने में है”, आज के समय के लिए गहरी सीख है. जब देशभक्ति को नारों और प्रतीकों तक सीमित कर दिया गया है, तब यह विचार हमें आत्ममंथन के लिए प्रेरित करता है. उन्‍होंने कहा, Indian परंपरा में राष्ट्र-भक्ति केवल भावनात्मक या राजनीतिक अवधारणा नहीं रही; यह आचार, आस्था और आचरण का विषय रही है. ‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’ का भाव इसी से उपजा है.

संघ की दृष्टि में राष्ट्रभक्ति केवल सीमाओं की रक्षा तक सीमित नहीं, बल्कि समाज की रचना और उसकी उन्नति में सक्रिय योगदान का नाम है. हर स्वयंसेवक का जीवन इसी सूत्र से संचालित होता है, “हम क्या पा सकते हैं” नहीं, बल्कि “हम क्या दे सकते हैं.”

सनातन और चिरंतन राष्ट्र की अवधारणा

अरुण कुमार ने अपने संबोधन में “सनातन” और “निरंतर” की बात की, जिसमें राष्ट्र की अवधारणा है. उन्‍होंने बताया कि भारत कोई राजनीतिक सीमाओं से बंधा हुआ नया देश नहीं; यह सभ्यता की निरंतरता का जीवंत रूप है. डॉ. हेडगेवार ने संघ की स्थापना के समय कहा था, “हम संघ नहीं, समाज बनाने चले हैं.” यह वाक्य केवल संगठन का उद्देश्य नहीं, बल्कि उस व्यापक दृष्टि का परिचायक है जिसमें राष्ट्र को समाज की चेतना से जोड़ा गया.

यह चेतना किसी एक युग या शासन से नहीं आई; यह उन असंख्य ऋषियों, सैनिकों, किसानों, माताओं और गृहिणियों की तपस्या से बनी, जिन्होंने कठिनतम परिस्थितियों में भी इस भूमि की अस्मिता को अक्षुण्ण रखा. मुगलों से लेकर अंग्रेजों तक, आक्रमणों की अनगिनत लहरों के बावजूद, भारत की आत्मा कभी पराजित नहीं हुई क्योंकि उसके भीतर का “राष्ट्र-तत्‍व” जीवित है .

गीत और संस्कृति : संघ का आत्मसंस्कार

अरुण कुमार ने कहा कि संघ के किसी भी कार्यक्रम में गीतों के बिना वह आयोजन अधूरा रहता है. गीत हमारे लिए एक सांस्कृतिक औपचारिकता भर नहीं, यह तो सांस्कृतिक अनुशासन का प्रतीक है. संघ के गीतों में भारत की भूमि, उसके वीरों, उसकी माताओं और उसकी परंपरा के प्रति कृतज्ञता झलकती है. यह गीत केवल स्वर नहीं, बल्कि एक विचारधारा का संचार हैं जो स्वयंसेवक को यह स्मरण कराते हैं कि उसकी हर सांस राष्ट्र के लिए है. गीतों के माध्यम से संघ ने जो सांस्कृतिक पुनरुत्थान किया, वह आज के ‘सांस्कृतिक विस्मरण’ के दौर में एक प्रेरणा है. जब युवा वर्ग पश्चिमी प्रभावों के बीच अपनी जड़ों को खोजने का प्रयास कर रहा है, तब संघ की गीत परंपरा उसे अपनी पहचान से जोड़ती है.

समाज-निर्माण, न कि केवल संगठन

उन्होंने कहा कि संघ की स्थापना का मूल उद्देश्य राजनीतिक शक्ति नहीं, बल्कि सामाजिक पुनर्निर्माण है. यही कारण है कि डॉ. हेडगेवार ने कहा था, “संघ समाज की आत्मा में राष्ट्रभावना जगाने का कार्य करेगा.” आज जब संघ के कार्यकर्ता ग्राम विकास, शिक्षा, पर्यावरण, सेवा और स्वावलंबन जैसे क्षेत्रों में सक्रिय हैं, तो यह उसी दृष्टि की निरंतरता है. उन्‍होंने कहा, अब तक संघ के जो भी कार्य हुए हैं, वे समाज के सहयोग से हुए हैं, वास्‍तव में “हमने कुछ नहीं किया, समाज ने किया है.” यह वाक्य संघ के मूल दर्शन का सार है कि राष्ट्र कोई सत्ता का तंत्र नहीं, बल्कि समाज की जीवंत चेतना है.

आत्मचिंतन का शताब्दी वर्ष

उन्होंने कहा कि जब संघ अपना शताब्दी वर्ष मना रहा है, तब यह केवल उत्सव का नहीं, आत्मचिंतन का भी क्षण है. उनका यहां कहना था कि “क्या हम समाज द्वारा मिले विश्वास और सम्मान के योग्य हैं?”, हर देशभक्त के लिए विचारणीय है. राष्ट्र सिर्फ गर्व करने की वस्तु नहीं; वह जिम्मेदारी का बोध कराता है. यदि समाज ने हमें प्रेम और विश्वास दिया है, तो उसे लौटाना हमारा नैतिक दायित्व है.

भारत : तप, त्याग और निरंतरता की भूमि

उन्‍होंने कहा, भारत की राष्ट्र-कल्पना केवल राजनीतिक सीमाओं पर आधारित नहीं, बल्कि आध्यात्मिक और सांस्कृतिक एकता पर टिकी है. यहाँ “राष्ट्र” का अर्थ भूमि के टुकड़े से नहीं, बल्कि उस साझा चेतना से है जो व्यक्ति को समाज और समाज को सभ्यता से जोड़ती है. महर्षि अरविंद ने कहा था, “भारत एक जीवित शक्ति है, जो अपने आत्मा के माध्यम से संसार को मार्ग दिखाने के लिए उत्पन्न हुई है.” समाज में आत्मबल, संगठन और सेवा की भावना जागृत कर इसी भाव को संघ अपने कार्यों से जीता है.

भारत उनका है जिन्होंने इसे संभाला

अरुण कुमार ने कहा कि आज जब कुछ वर्ग भारत की एकता और उसकी सांस्कृतिक पहचान पर प्रश्न उठाते हैं, तब उनका यह कथन पुनः स्मरणीय है कि “यह नया राष्ट्र नहीं है, यह उन लोगों का राष्ट्र है जिन्होंने इसे बनाने, बनाए रखने, इसकी रक्षा और उन्नति में भूमिका निभाई है.” यह विचार केवल इतिहास का पुनर्पाठ नहीं, बल्कि भविष्य का दिशा-सूत्र भी है.

भारत किसी एक धर्म, जाति या वर्ग का राष्ट्र नहीं, यह उन सभी का है जिन्होंने इसकी मिट्टी, जल, वायु और संस्कृति की रक्षा के लिए स्वयं को समर्पित किया. यह देश उन ऋषियों का है जिन्होंने ज्ञान दिया, उन सैनिकों का जिन्होंने सीमाएं सुरक्षित कीं, उन किसानों का जिन्होंने धरती को सींचा, और उन माताओं का जिन्होंने अपने पुत्रों को राष्ट्र के लिए समर्पित किया. अतः भारत केवल भूमि का नाम नहीं; यह बलिदान, तपस्या और सेवा का संगम है और इसलिए ही भारत उन्हीं का है, जिनके पूर्वजों ने हर कष्ट सहकर इसे बनाए रखा है.

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(Udaipur Kiran) / डॉ. मयंक चतुर्वेदी

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